IGAS BAGWAL शनिवार, 1 नवंबर 2025 को देवभूमि उत्तराखंड में एक बार फिर पारंपरिक लोकपर्व ‘इगास बग्वाल’ (IGAS BAGWAL 2025) की धूम मचेगी। इसे बूढ़ी दिवाली या इगास दिवाली के नाम से भी जाना जाता है। दिवाली के ठीक 11 दिन बाद कार्तिक शुक्ल एकादशी को मनाया जाने वाला यह त्योहार, न सिर्फ उत्तराखंड की संस्कृति का गौरव है, बल्कि शौर्य और सामुदायिक एकता का प्रतीक भी है।
इस दिन राज्य सरकार ने भी राजकीय अवकाश घोषित किया है ताकि प्रवासी उत्तराखंडी भी अपने गांवों में लौटकर अपनी जड़ों से जुड़ सकें और इस खास लोकपर्व को पूरे उत्साह के साथ मना सकें।
आखिर क्यों मनाई जाती है दिवाली के 11 दिन बाद ‘इगास’ (IGAS BAGWAL)?
इगास बग्वाल (IGAS BAGWAL) मनाने के पीछे दो प्रमुख लोक-मान्यताएं प्रचलित हैं, जो इस पर्व को खास बनाती हैं:
1. भगवान राम की वापसी की देरी से मिली खबर
पौराणिक मान्यता के अनुसार, जब भगवान श्रीराम 14 वर्ष का वनवास पूरा कर और लंका पर विजय प्राप्त कर अयोध्या लौटे, तो पूरे देश में दीपोत्सव मनाया गया। लेकिन उत्तराखंड के दूरस्थ पहाड़ी क्षेत्रों में राम के आगमन की खबर 11 दिन बाद, यानी कार्तिक शुक्ल एकादशी को पहुंची। इस देरी के कारण, यहां के लोगों ने 11वें दिन अपने तरीके से खुशियां मनाईं और दीये जलाए, जिसे बूढ़ी दिवाली कहा जाने लगा।
2. वीर माधो सिंह भंडारी का विजयोत्सव
एक अन्य ऐतिहासिक कहानी गढ़वाल के महान सेनापति वीर माधो सिंह भंडारी से जुड़ी है। कहा जाता है कि लगभग 400 साल पहले, वे राजा महीपति शाह की सेना का नेतृत्व करते हुए तिब्बत के युद्ध में गए थे। दिवाली के समय उनकी सेना घर नहीं लौट पाई। लोगों ने मान लिया था कि सैनिक वीरगति को प्राप्त हो गए होंगे, इसलिए किसी ने दिवाली नहीं मनाई।
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लेकिन दिवाली के ठीक 11वें दिन, वीर माधो सिंह भंडारी अपनी सेना के साथ युद्ध जीतकर विजयी होकर वापस लौटे। उनकी इस जीत और सुरक्षित वापसी की खुशी में, पूरे गढ़वाल क्षेत्र में दीये जलाकर भव्य उत्सव मनाया गया। तभी से इस दिन को इगास बग्वाल यानी ‘विजयोत्सव’ के रूप में भी मनाया जाता है।
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इगास बग्वाल (IGAS BAGWAL) कैसे मनाया जाता है?
इगास (IGAS BAGWAL) का त्योहार आस्था, लोक संगीत और पारंपरिक खेलों का जीवंत संगम है।
- भैलो खेलने की अनूठी परंपरा: IGAS BAGWAL पर्व का मुख्य आकर्षण है ‘भैलो’ खेलने का रिवाज। भैलो चीड़, भीमल या भांगजीरे की सूखी लकड़ियों का गट्ठर होता है, जिसे रस्सी से बांधा जाता है। शाम को देवी-देवताओं की पूजा के बाद, ग्रामीण इस गट्ठर को जलाकर रस्सी से घुमाते हैं, जिससे आग के शानदार गोले हवा में घूमते हुए नज़र आते हैं। यह भैलो खेलना खुशहाली, समृद्धि और बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक माना जाता है।
- लोकगीत और नृत्य: IGAS BAGWAL के दिन पारंपरिक वेशभूषा में सजे स्थानीय लोग ढोल-दमाऊ की थाप पर ‘छोलिया’, ‘झुमैलो’ और ‘चांचरी’ जैसे लोक नृत्य करते हैं। ‘भैलो रे भैलो’ और वीरता की गाथाएं सुनाने वाले लोकगीत पूरे पहाड़ी अंचल में गूंजते हैं।
- पशुधन का सम्मान: इगास (IGAS BAGWAL) के दिन गायों और बैलों को विशेष सम्मान दिया जाता है। उन्हें नहलाकर, उनके सींगों पर तेल लगाकर और मालाएं पहनाकर उनकी पूजा की जाती है।
- पारंपरिक पकवान: घरों में विशेष पहाड़ी व्यंजन, जैसे अरसा, पूड़ी, स्वले, खीर और अन्य पारंपरिक पकवान बनाए जाते हैं, जिन्हें आपस में बांटा जाता है।
इगास बग्वाल सिर्फ एक त्योहार नहीं, बल्कि यह उत्तराखंड की ‘देवभूमि’ और ‘वीरभूमि’ की पहचान है। यह पर्व हमें अपनी जड़ों से जुड़ने, पूर्वजों का सम्मान करने और लोक-संस्कृति को संजोकर रखने का संदेश देता है।
तो इस 1 नवंबर 2025 को, आप भी अपनी इस अनूठी ‘बूढ़ी दिवाली’ के रंग में रंगने के लिए तैयार हो जाइए!



